भूली बिसरी पँक्तियाँ
आग उगलते अभिसारों का
वैभव दर्पण दमक रहा है
कल का वो शीतल आँचल
अब अंगारों सा धधक रहा है....
कल कल्पना मधुर यौवन थी
आज कल्पना व्यथा सागर है
जीवन के सीने मे जीवन
काँटे जैसा खट्क रहा है....
मात्र साँन्तवना ग्राह्य नहीं है
भाव दमन संभाव्य नहीं है
सुमन उगा लो अभी समय है
अभी लुटा म्रदु काव्य नहीं है....
वरन भव्य विस्फ़ोट्क होगा
उर मे जो युग धधक रहा है....
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteक्या बात है डा साहब पूरे कवि हो गये..
ReplyDeleteउत्तम! ब्लाग जगत में पूरे उत्साह के साथ आपका स्वागत है। आपके शब्दों का सागर हमें हमेशा जोड़े रखेगा। कहते हैं, दो लोगों की मुलाकात बेवजह नहीं होती। मुलाकात आपकी और हमारी। मुलाकात यहां ब्लॉगर्स की। मुलाकात विचारों की, सब जुड़े हुए हैं।
ReplyDeleteनियमित लिखें। बेहतर लिखें। हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। मिलते रहेंगे।
narayan narayan
ReplyDeleteसुंदर लिखा है
ReplyDeletebadalte manzron kee gambhir aahten hain is rachna me........bahut hi achhi
ReplyDeletemujhey aapki sari kavitaein bahot achi lagi
ReplyDeletesumit nahi dikshya
ReplyDelete