Wednesday, April 29, 2015

अस्तित्व


मुझसे क्या रिश्ता है,
सोचता हूँ क्या कहा होगा जब

तने हुए पेड़ों ने किरकिराती आंधियोँ से पूछा होगा
मुझ से क्या रिश्ता है, मुझसे क्यूँ टकराते हो

सोचता हूँ, क्या कहा होगा जब

घास की कोमल पत्तियोँ ने ओस की बूंदो से पूछा होगा
मुझसे क्या रिश्ता है, मेरे आगोश मेँ क्यूँ आते हो

सोचता हूँ, क्या कहा होगा जब

समंदर के सुकून ने नदियोँ के उफान से पूछा होगा
मुझ से क्या रिश्ता है, मुझमेँ क्यूँ समाते हो

उन्हें भी पता है,

पेडो के गर्व किरकिराती आंधियो के टकराने से है,
घास की कोमलता ओस की बूंदो के आगोश से है,
समंदर का सुकून नदी के उफान के समा जाने से है,

शायद, मेरा भी
अस्तित्व,
तुम्हे पा लेने मेँ है.

Tuesday, December 15, 2009

जीवन वृक्ष












रखिये वृक्ष का सम्मान.
एक वृक्ष दस पुत्र समान..

सूख रहे हैं ताल तलैया..
अब तो वृक्ष लगा लो भैया..

यह संदेशा रखिये याद.
नहीं करें वन को बर्बाद..

झेले धूप, बिठावै छांव.
चलो वृक्ष, के पूजैं पांव..

कैथ, बील, बट, आंवला, शीशम, पीपल, आम.
जो पाले इन वृक्ष को, पाये स्वर्ग मे धाम..

वन पर बादल रीझ कर, बरसाते निज प्यार.
जल है जीवन, जगत को वृक्ष का उपहार..

ग्यारह वृक्ष लगाये यदि, जीवन मॆ इन्सान.
पाप मुक्त हो जायेगा, कहते वेद पुराण..

सौ बीमारी दूर हो, कहते वैध हकीम.
हर ऑगन लहराये, जो लिये निवोरी नीम..

अमृत वायु देकर हमें, स्वयं करें विष पान.
तरुवर तुममें दीखते, शिव शंकर भगवान..

आभूषण हैं भूमि के, वृक्ष हमारे मीत.
इन्हें कुल्हाडी मारकर करो न तुम भयभीत..

Thursday, June 25, 2009

चंद पुरानी तस्वीरें

ये तसबीरें विजया विलास महल मांड्वी तालुका, कच्छ जिला, गुजरात में लगी हुयी हैं. जो जून २००९ की यात्रा के दौरान ली गयी.




Friday, February 6, 2009

दर्द तुम रोज क्यों चले आते हो

एक एहसास
सारे मौसम, मैं अकेला, अंतहीन रात
करवटों में पतझड की आहट, पलकों में बारिश की नमी
ह्र्दय में गर्मी की जलन, होंठों में सर्दी का कंपन
फ़िर कभी दबी हुई कई,
सिसकती चीख,
चीरती रात का सन्नाटा
दर्द तुम रोज क्यों चले आते हो,
तुम ही शायद मेरे अकेले सखा हो....

एक एहसास
सारे मौसम, मैं अकेला, अंत की रात
उलझे केश, सहमा सा मन

थरथराते हाथ, अकडा सा बदन
फ़िर कभी दबी हुई इक,

चीरती चीख,
सिसकती रात का सन्नाटा,
दर्द तुम रोज क्यों चले आते हो,
तुम ही शायद मेरे अकेले सखा हो....


अंतिम एहसास
तूफानी मौसम, मैं अकेला, मौत का अटटाहस
बंद होती आँखें, तेज होती साँसें
कभी हिचकी, कभी उबकाई,
फ़िर कभी खुली हुई अंतिम....,
सिसकती, चीरती,चीखती,रात

और सन्नाटा,
दर्द तुम अब नहीं आ पाओगे
तुम अब भी मेरे अकेले सखा हो.....

Wednesday, February 4, 2009

भूली बिसरी पँक्तियाँ















आग उगलते अभिसारों का
वैभव दर्पण दमक रहा है
कल का वो शीतल आँचल
अब अंगारों सा धधक रहा है....

कल कल्पना मधुर यौवन थी
आज कल्पना व्यथा सागर है
जीवन के सीने मे जीवन
काँटे जैसा खट्क रहा है....

मात्र साँन्तवना ग्राह्य नहीं है
भाव दमन संभाव्य नहीं है
सुमन उगा लो अभी समय है
अभी लुटा म्रदु काव्य नहीं है....
वरन भव्य विस्फ़ोट्क होगा
उर मे जो युग धधक रहा है....

Sunday, February 1, 2009

दिन का स्वागत


महाकवि कालिदास की कलम से:
दिन का स्वागत

आज की तरफ़ देखो
क्योंकि यही जीवन है, यही जीवन का सार है.
इसकी छोटी सी यात्रा मे आपके अस्तित्व की तमाम सच्चाइया बिखरी है:

विकास का आनन्द
कर्म का सुख
सुन्दरता का आकर्शण,

क्योकि गुजरा कल तो एक सपना है
और आने वाला कल सिर्फ़ एक झलक,
परन्तु आज सही से जी ले,तो गुजरा पल सुखद सपना होगा

और हर आने वाला कल, आशा की झलक.
इसलिये, अच्छी तरह से देख लो इस दिन को!
दिन का स्वागत का यही तरीका है.